MGPE 013 Solved Assignment 2020
MGPE 013 Sivil Society, Political Regimes And Conflict
नागरिक समाज, राजनीति शासन और संघर्ष
Solved Assignment
30 April 2020 / 30 September 2020
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Title – MGPE 013 Sivil Society, Political Regimes And Conflict
नागरिक समाज, राजनीति शासन और संघर्ष
University – Ignou
Assignment Types – PDF, SOFT COPY /Handwritten on order
Course – MPS (MASTER IN POLITICAL SCIENCE)
Medium / Language – HINDI MEDIUM / ENGLISH MEDIUM BOTH AVAILABLE
Session – JULY 2019, JANUARY 2020
Subjects code – MGP004
Assignment Submission Date – July 2019 session के लिए – 30 April 2020, January 2020 session के लिए – 30 September 2020.
MGPE 013 Solved Assignment
प्र. 1 नागरिक समाज के प्रारंभिक आधुनिकता की धारणा की व्याख्या कीजिए।
उत्तर –
भूमिका :- नागरिक समाज की अवधारणा का उदय 1750 से 1850 के मध्य हुआ। प्रारंभ में नागरिक समाज को राज्य का ही पर्याय माना जाता था, परन्तु बाद में राज्य और नागरिक समाज को भिन्न भिन्न अवधारणा माना गया। नागरिक समाज की अवधारणा का जन्म स्वेच्छाचारिता के उन्मूलन के उद्देश्य से हुआ। नागरिक समाज की अवधारणा सबसे पहले अरस्तू के राजनीतिक दर्शन यूनानी शब्द (Politika Koinonia) में देखने को मिलती है। अरस्तू नागरिक समाज को समाज नागरिकों का नैतिक – राजनीतिक समुदाय मानता है।
नागरिक समाज की अवधारणा को हम आधुनिक माना सकते हैं, परन्तु इसका उल्लेख हमें प्राचीन राजनीतिक दर्शन में भी मिलता है। नागरिक समाज को 18वीं शताब्दी की लोकतांत्रिक क्रांति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी माना जाता है। विद्वानों ने भिन्न-भिन्न ढंग से नागरिक समाज को परिभाषित करने का प्रयास किया है इसी कारण नागरिक समाज पर एक सर्वमान्य परिभाषा का अभाव दिखाता है।
MGP 004 Gandhi’s Political Solved Assignment 2020
राज्य से भिन्न, नागरिक समाज का उदय केवल सामंती समाज के विघटन के साथ ही होता है। राजनीतिक समाज और आत्मिक या आध्यात्मिक समाज का भेद प्रमुखता से तब ध्यान में आया जब सुधार आन्दोलन ने धार्मिक कलह छेड़ दी जिससे प्रोटेस्टैंट मत का जन्म हुआ और खुद ईसाई धर्म की एकता ही भंग हो गई।
MGPE 013 Solved Assignment 2019 – 2020 Hindi
नागरिक समाज की प्रारंभिक आधुनिक धारणा : फगर्यसन और स्कॉटिश प्रबोधन
राज्य से भिन्न, नागरिक समाज का उदय केवल सामंती समाज के विघटन के साथ ही होता है। राजनीतिक समाज और आत्मिक या आध्यात्मिक समाज का भेद प्रमुखता से तब ध्यान में आया जब सुधार आन्दोलन ने धार्मिक कलह छेड़ दी जिससे प्रोटेस्टेंट मत का जन्म हुआ और खुद ईसाई धर्म की एकता ही भंग हो गई।
टाॅमस हाॅब्स के अनुसार, चर्च – केन्द्रित सत्ता तो शासन, आदेश या दबाव का रूप नहीं बल्कि एक प्रकार का शिक्षण और प्रेरण है। यह राज्य पर दावा नहीं कर सकती, जबकि इसके विपरीत केवल राज्य की क्रियाओं के माध्यम से ही धार्मिक सिद्धांतों को एक राजनीतिक दर्जा हासिल हो सकता है। बहरहाल, वह फिर भी राजनीतिक समाज को नागरिक समाज के समान बनाता है।
इसके विपरीत, अरस्तू को दोहराते हुए, लाॅक का कहना है कि राजनीतिक समुदाय कोई विस्तारित परिवार नहीं होता और राजनीतिक शासन भी पैतृक नहीं होता। हाॅब्स और लाॅक दोनों ही व्यक्तिगत और राजनीतिक सत्ता के बीच एक सामाजिक अनुबंध स्थापित करने के नैसर्गिक और तार्किक आधार स्पष्ट करने के लिए मौजूदा नागरिक समाज की विशिष्टताओं को वापस प्रकृति की स्थिति में ले जाते हैं।
राजनीतिक और सामाजिक के बीच भेद का जन्म
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अठारहवीं शताब्दी के अंत और उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में, औद्योगिक और फ्रांसीसी क्रांतियों के बाद, राज्य और समाज का एक और भेद सामने आया। समाज का मतलब वह मौलिक मेल नहीं रह जाता जिसे राज्य स्थापित करता है। नागरिक समाज अब अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं को अपने ही ढंग से पूरा करने के अधिकार का प्रयोग करने वाले व्यक्तियों द्वारा गठित अंत : क्रिया और विनियमय के संपर्क जाल के रूप में उभरना है।
चार्ल्स – लूई एस. माॅन्टेस्क्यू (1689 – 1755) का कहना है कि वाणिज्यवाद मनुष्यों को उनके पूर्वाग्रहों से मुक्त करता है जो उनकी वास्तविक आवश्यकताओं को छिपाते हैं। एक बार जो मनुष्य अपनी वास्तविक आवश्यकता को समक्ष भी लें तो फिर उन्हें उनके “मानवता” – बोध का पता चल जाएगा और वे पहले के धार्मिक, जातीय और राष्ट्रीय संप्रदायवाद को पीछे छोड़ देंगे। एक बार बस वे समग्र खुशहाली की ओर ले जाने वाले शांतिपूर्ण व्यापार के आकर्षण को समझ ले तो फिर उन्हें सैनिक अभियानों और युद्ध के खतरों से चिढ़ हो जाएगी।
वे राष्ट्रीय विविधता और व्यक्तिगत विशिष्टता या अनन्यता को भी समझने – सराहने लग जाएँगे। वाणिज्य तो मितव्ययता, बचत, संयम, कार्य, विवेक, शांति,व्यवस्था और शासन, और सबसे अहम तो समुचित न्यायिक समाधान की भावना लेकर आता है जिससे खुले आम डकैती और दूसरों की खातिर अपने हितों की उपेक्षा के बीच एक संतुलित बनता है।
Solved Assignment MGPE 013 2020 In hindi medium pdf
डेविड हयूम (1711 – 76) ने अनुबंध को नहीं बल्कि हित को वह कारक माना है जो व्यक्ति को समाज से जोड़ता है। ऐडम स्मिथ ने अपने समकालीनों – ह्यूम, ऐडम फगर्यूसन (1723 – 1816) और जाॅन मिलर (1735 – 1801) – के समान वाणिज्य और परस्पर सहयोग से मिलने वाले लाभों को समाज – निर्माण का आधार माना है। केवल स्वहित या स्वार्थ को ही नहीं बल्कि संवेगों के विकास, तार्किक चरित्र और व्यक्तियों में होने वाले झगड़ों को भी यहाँ ध्यान में रखना होगा। नागरिक समाज का गठन केवल विनिमय की भौतिक इच्छा से नहीं बल्कि अनुबंध से भी होता है जिसके लिए विश्वास और न्याय की आवश्यकता होती है।
स्कॉटिश प्रबोधन के इन चिंतकों ने, व्यापार और विनिर्माण के विस्तार होते भौतिक क्षेत्र के रूप में, नागरिक समाज का एक नया वर्णन प्रस्तुत किया है, और नागरिक समाज की उस राजनीतिक धारणा और आर्थिक व्यवस्था की उस पारंपरिक अवधारणा को तोड़ा है जिसे सामाजिक अनुबंध चिंतन मानते थे। उनकी दृष्टि में आर्थिक व्यवस्था अब केवल समाज का और उस समय समाज का एक अनिवार्य तत्व बन गई है जो व्यापार और विनिमय, बाजार और श्रम – विभाजन के विस्तार से लाभ लेता है। यह विचार पडुआ के मार्सिलियस की रचनाओं से आया है, जिसके अनुसार भौतिक शांति से आर्थिक और सामाजिक लाभों का आदान – प्रदान संभव होता है। वह परिवार से राज्य तक के विकास को गतिविधियों के बढ़ते विशेषीकरण और विभेदन का परिणाम मानता है, जिनका सामान्य लक्ष्य, “जीवन के लिए और उत्तम जीवन के लिए भी” आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति है।
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फगर्यूसन के ऐन ऎसे आॅन दी हिस्ट्री आॅफ सिविल सोसाइटी में स्कॉटिश प्रबोधन के आम ढाँचे के अंतर्गत नागरिक समाज का अत्यंत सारगर्भित विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। फगर्यूसन के अनुसार, “नागरिक समाज ऐसा जीवन – क्षेत्र नहीं है जो राज्य से जुदा हो, वास्तव में, दोनों एक समान है। नागरिक समाज एक प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था है जो, नियमित हुकूमत, कानून और सशक्त सैनिक प्रतिरक्षा के माध्यम से, अपनी यांत्रिक और वाणिज्य कलाओं को, और अपनी सांस्कृतिक उपलब्धियों और जनभावना के बोध को भी, बचाती और निखारती हैं ”।
कानून के आधुनिक विभाजन को वह जन – भावना को भ्रष्ट करने वाला मानता है, यह विचार उसे नागरिक मानवतावाद की पुरानी परंपरा से जोड़ता है। जन – भावना के ह्रास से नागरिकों का सत्ता से संदेह पूरा होता है और इस प्रकार स्वेच्छाचारी शासन का मार्ग प्रशस्त होता है। नागरिक समाज जब जनभावना को नष्ट कर देती है तो उससे राज्य की ताकत का दायरा बढ़ जाता है और जनता नागरिक व्यवस्था और शांति की अभ्यस्त हो जाती है।
नागरिक समाज एक पेशेवर फौज को भी स्थापित करती है जिससे सैनिक ताकत कि नागरिक समाज के भ्रष्ट नागरिक किस प्रकार भ्रष्टाचार या गहरे पैनी स्वेच्छाचारिता से छुटकारा पा सकते हैं। इस दुविधा के लिए कि आधुनिक नागरिक समाज को एक संप्रभु केन्द्रीकृत संवैधानिक राज्य की आवश्यकता होती है जो वाणिज्य और विनिर्माण के साथ मिलकर समाज के बंधनों को तोड़ता है और नागरिकों की स्वतंत्र समितियों की क्षमता और नागरिक स्वतंत्रताओं को खतरे में डालता है,
इस दुविधा के लिए फगर्यूसन ने नागरिकों की समितियों को मजबूत करने का सुझाव दिया है – चाहे वे जूतियों में हो, या नागरिक सेवाओं में हों या फिर नागरिक समाज में। अरस्तू के मत को दोहराते हुए, फगर्यूसन कहता है कि मनुष्य अपना सबसे अच्छा प्रदर्शन तब करते हैं जब वे सामाजिक समूहों में होते हैं।
“समाज की अनुप्राणित भावना के प्रभाव में”, मानव जीवन सर्वाधिक सुखी और स्वतंत्र होता है। दिलचस्प बात यह है कि वह जन – भावनायुक्त संवैधानिक राजतंत्र को सर्वोत्तम मानता है। इस प्रकार की संरचना में जोर नागरिक समाज और राज्य के विभिन्न क्षेत्रों पर होता है, पर ये क्षेत्र एक – दूसरे के विरोधी न होकर पूरक होते हैं। यद्यपि, परवर्ती संरचना में इस संरचना का पूर्ण निषेध देखने को मिलता है।
निष्कर्ष :- राज्य संबंधी अधिकांश अवधारणाएँ राज्य और नागरिक समाज के भेद या अंतर को स्वीकार करती है, सिवाय सर्वाधिकारवाद के जिसका उदय बीसवीं शताब्दी की पहली चौथाई में हुआ और जो केवल राज्य और समाज के भेद को ही खारिज नही करता बल्कि निजी और सार्वजनिक और राज्य और राष्ट्र के अंतर को भी निषेध करता है।
सर्वाधिकार राज्य को राष्ट्र में मिला देता है और राज्य को राष्ट्र की एकमात्र और संपूर्ण अभिव्यक्ति का रूप देता है। यह राज्य को एक पार्टी और एक पितृत्वादी नेता के अधीन रखता है। दर्शन के स्तर पर मार्क्सवाद और अराजकतावाद जेसी कुछ विचारधाराएँ यह मानते हैं कि अंत में राज्य का लोप हो जाएगा।
फ्रेडरिक आॅगस्ट वाॅन हायेक जैसों के उदारवाद के आमूल परिवर्तित संस्करणों में यह कहा गया है कि समाज तो सहजता का प्रतिनिधित्व करता है जबकि राज्य दमन का प्रतीक है और इसलिए इसके दायरे की कम से कम करने की आवश्यकता है।
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