
भारत में भाषा की राजनीति
भारत में भाषा की राजनीति
भारत में भाषा की राजनीति सामूहिकता की अवधारणा पर आधारित भाषा के कारण परस्पर जुड़े अभेदभाव संबंधित दावों का आरंभ कांग्रेस की स्वतंत्रता पूर्व की राजनीति से है जिसमें स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विश्वास दिया था परंतु जे वी पी (जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल और पताभी सीतारामय्या) समिति का यह मानना था कि यदि सार्वजनिक भावना “आग्रह पूर्ण तथा अत्यधिक” है तो तत्कालीन मद्रास के तेलुगु भाषी क्षेत्र से आंध्र प्रदेश के गठन को स्वीकृति दी जा सकती थी जिसका वर्णन माइकल ब्रेकर ने भारतीय राजनीति में 1953 से 1956 के दौरान चले राज्यों के पुनर्गठन से संबंधित कटु संघर्ष का शुरुआती कदम था” परंतु यह विडंबना रही कि भाषायी समूहिएकता के लिए अलग राज्यों के दावे 1956 में समाप्त नहीं हुए, यहां तक कि आज भी यह मांग भारतीय नेताओं के लिए चुनौती बनी हुई है परंतु समस्या यह रही है कि गठित किए गए अथवा राज्य की मांग करने वाले राज्यों में से कोई भी एकल सजातीय नहीं है तथा कुछ में तो संख्या तथा राजनीति के दृष्टि से सशक्त अल्पसंख्यक भी है जिसके परिणाम स्वरुप राज्यों के लिए मांग के कारण वर्तमान राज्यों की सीमाओं को खतरा जारी है तथा भाषायी राज्यों के बीच सीमा विवाद के संघर्ष चल रहे हैं | उदाहरण के तौर पर बेलगांव जिले से संबंधित महाराष्ट्र तथा कर्नाटक के मध्य विवाद अथवा मणिपुर के कुछ भागों के लिए नागालैंड का दावा |