April 17, 2024
राज्य निर्माण तथा राष्ट्रीय निर्माण

राज्य निर्माण तथा राष्ट्रीय निर्माण

सामान्य रूप में राज्य और राष्ट्र में कोई विशेष अंतर नहीं समझा जाता है। इस वजह से शब्दों का गलत प्रयोग किया जाता है। एक राज्य निर्माण और राष्ट्र किस प्रकार से होता है इन दोनों को अलग – अलग समझना होगा | उदाहरण – एक अंतरराष्ट्रीय संगठन का नाम संयुक्त राष्ट्र (U.N) है। वास्तव में, यह संगठन राष्ट्र का संघ नहीं है, बल्कि राज्यों का संघ है। ठीक इसी तरह,पहले विश्व युद्ध के बाद स्थापित की गई संस्था को राष्ट्र संघ (League of Nations) भी कहा जाता था। वास्तव में, यह संगठन भी राष्ट्रों की नहीं, बल्कि राज्यों का संघ था। राज्य और राष्ट्र वास्तव में दो अलग-अलग विचार हैं और इन दोनों में भी काफी अंतर हैं। राष्ट्र निर्माण और राज्य निर्माण में अंतर इस प्रकार हैं –

राज्य निर्माण और राष्ट्र निर्माण में अंतर

एक राज्य के लिए चार निश्चित तत्व आवश्यक हैं  जनसंख्या, भूमि, सरकार और संप्रभुता | यह राज्य के चार आवश्यक तत्व हैं। इनके बिना राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वही दूसरी ओर राष्ट्र को इन तत्वों की आवश्यकता नहीं है, बल्कि साझा धर्म, सामान्य भाषा, सामान्य रीति रिवाज, सामान्य इतिहास और भावनात्मक एकता की भावना की आवश्यकता है। यदि राज्य के चार निश्चित तत्वों में से एक की भी कमी है, तो राज्य का निर्माण नहीं किया जा सकता है। लेकिन यदि राष्ट्र के निर्माणक तत्वों में से एक या दो तत्व नहीं भी हैं, तो भी एक राष्ट्र बन सकता है। कहने का अर्थ यह है कि पूरी दुनिया में राज्य के चार निर्माणक तत्व एक जैसे ही हैं, लेकिन राष्ट्र के निर्माण के लिए विभिन्न देशों में विभिन्न तत्व सहायक हो सकते हैं।

राष्ट्र एक आध्यात्मिक एकता है और राज्य एक राजनीतिक संगठन – वास्तव में, राष्ट्र का संबंध आध्यात्मिक एकता से है। राष्ट्र उन लोगों का समूह है जिनमें आध्यात्मिक और सांस्कृतिक समानता है। इसी कारण ही वे राष्ट्रीय एकता की श्रंखला में बंधे होते है। इसके विपरीत, राज्य एक राजनीतिक संगठन है जिससे लोगों में राजनीतिक एकता पैदा होती है। राज्य का संबंध व्यक्ति की आध्यात्मिक भावनाओं से नहीं होता, बल्कि लोगों की भौतिक जरूरतों को पूरा करने और व्यक्ति के समग्र विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियों को पैदा करना इसका मुख्य उद्देश्य है। राष्ट्र मनुष्य की ऐसी आवश्यकताओं से संबंधित नहीं होता।

राज्य के अंत हो जाने के साथ राष्ट्रों का अंत नहीं होता – किसी भी राज्य की संप्रभुता के समाप्त होने के साथ ही उसका राज्य तो समाप्त हो जाता है, लेकिन किसी राज्य के अंत के साथ उस राज्य में रहने वाले राष्ट्र का अंत नहीं होता। उदाहरण के लिए- द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, जापान और जर्मनी हथियारों की तैनाती के बाद कुछ समय के लिए अमेरिका, इंग्लैंड आदि जैसे देशों के नियंत्रण में तो आ गये थे। लेकिन इस स्थिति में भी राजनीति शास्त्र के सिद्धांत अनुसार, जापान और जर्मनी राष्ट्र का अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ था।

एक राज्य के निर्माण लिए निश्चित क्षेत्र आवश्यक है, लेकिन राष्ट्र निर्माण के लिए नहीं – निश्चित भूमि राज्य निर्माण का एक महत्वपूर्ण तत्व है, लेकिन राष्ट्र के लिए निश्चित भूमि का होना आवश्यक नहीं है। राष्ट्रीय भावनाओं का विस्तार राज्य की निश्चित सीमाओं के बाहर भी हो सकता है।

राज्य के लिए संप्रभुता का होना जरूरी हैं, लेकिन राष्ट्र निर्माण के लिए नहीं –  संप्रभुता राज्य निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। संप्रभुता ही राज्य को  और संस्थाओं से अलग करती है लेकिन राष्ट्र निर्माण के लिए प्रभुसत्ता का होना आवश्यक नहीं है। जब कोई राष्ट्र संप्रभुता प्राप्त कर लेता है तो वह राज्य बन जाता है। उदाहरण के लिए, जब भारतीय राष्ट्र ने 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त की, तो भारतीय राज्य की स्थापना हुई।

एक राज्य के पास दंड देने की शक्ति होती हैं, लेकिन राष्ट्र के पास नहीं – एक राज्य के कुछ नियम और कानून होते के और राज्य के इन कानूनों का उल्लंघन करने वालों को राज्य द्वारा दंडित कर सकता है। लेकिन राष्ट्र के पास किसी भी तरह की सजा या दंड देने की शक्ति नहीं होती है। दूसरे शब्दों में, राज्य एक राजनीतिक संगठन है। इसके पास अनिवार्य शक्ति होती है और इसी शक्ति के आधार पर ही राज्य अपने उद्देश्यों को पूरा करने में सफल होता है। वही एक राष्ट्र को किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करनी होती। इसमें व्यक्ति के लिए कोई विशेष कार्य नहीं करने होते, इसका कोई विशेष संगठन या नियम, कानून नहीं होता। इसलिए, इसके पास दंड देने की शक्ति नहीं होती |

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राज्य और एक राष्ट्र निर्माण कि प्रक्रिया में भिन्नता है | राज्य का अस्तित्व निश्चित तत्वों पर आधारित है, लेकिन राष्ट्र का अस्तित्व भावनात्मक और आध्यात्मिक एकता पर आधारित है, ऐसी भावनात्मक और आध्यात्मिक एकता न तो राज्य पैदा कर सकता है और न ही इसे नष्ट कर सकता है। राज्य और राष्ट्र की सीमाएं चाहे समान नहीं हैं, लेकिन फिर भी राज्य संस्था में संगठित होने पर ही राष्ट्र अपनी भावनात्मक और आध्यात्मिक एकता विकसित कर सकता है।

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